International Journal of Literacy and Education
2022, Vol. 2, Issue 1, Part B
शिक्षा के राजनीतिक स्वर - एक भारतीय परिप्रेक्ष्य
Author(s): अरुण कुमार
Abstract: भारतीय परंपरा एवं संस्कृति ने शिक्षा को प्रारंभ से ही मुक्ति का मार्ग माना गया है-' सा विद्या या विमुक्तये’। शिक्षा किसी भी समाज का ऐसा अभिन्न तत्व है जिसके अभाव में किसी सभ्य अथवा प्रबुद्ध समाज को संकल्पित करना असंभव है। यह ना केवल प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित करता है वरन समाज को संचालित एवं नियंत्रित करने का भी एक यंत्र है। इसके साथ ही यह समाज को दिशा देने का कार्य करती है।परंतु, शासन व्यवस्थाओं ने स्वयं को वैध एवं सुदृढ़ बनाने के लिए शिक्षा को एक प्रभावी यंत्र के रूप में चिह्नित किया है- उत्तर वैदिक काल में ब्राह्मणवादी वर्चस्व, मध्यकाल में धार्मिक वर्चस्व एवं ब्रिटिश काल में लोक-सेवा वर्चस्वकारी संरचना शैक्षणिक नियंत्रण पर ही आधारित थी। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ सीखने-सिखाने की प्रक्रिया से है, जिसमें किसी प्रकार की ज्ञान की रचना एवं उसका प्रसार सम्मिलित होता है। उत्तर आधुनिक चिंतकों में मिशेल फ़ूको द्वारा 'ज्ञान को शक्ति’ कहा गया है, जिसका अभिप्राय है कि सत्ता की संरचना, ज्ञान की संरचना पर आधारित है। दूसरी ओर नव-मार्क्सवादी चिंतक एंटोनिओ ग्राम्शी नागरिक-समाज की भूमिका में शिक्षा संस्थानों को सम्मिलित करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि शिक्षा (सॉफ्ट पावर) को राज्य-सत्ता (हार्ड पावर) द्वारा स्वयं की सत्ता को स्थायित्व प्रदान करने हेतु कालांतर से प्रयोग जारी है।
DOI: 10.22271/27891607.2022.v2.i1b.48Pages: 121-125 | Views: 613 | Downloads: 216Download Full Article: Click HereHow to cite this article:
अरुण कुमार.
शिक्षा के राजनीतिक स्वर - एक भारतीय परिप्रेक्ष्य. Int J Literacy Educ 2022;2(1):121-125. DOI:
10.22271/27891607.2022.v2.i1b.48